200 सालों से पुणे में मनाया जा रहा है ऐतिहासिक गणेश उत्सव..
:-अदभुत नजारों को देखकर ही मुँह से निकल पड़ता है गणपति बप्पा मोरिया।
राजेंद्र कुमार विशेष संवाददाता (पुणे)
हिंदू धर्म में गणेश उत्सव अत्यधिक धूमधाम से पूरे देश में मनाया जाता है। धार्मिक मान्यता अनुसार विघ्नहर्ता भगवान गणेश जी का जन्म भाद्र पक्ष के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को हुआ था। गणेश जी का जन्म दिवस चतुर्थी को गणेश उत्सव के रूप मनाया जाता है। गणेश भगवान का जन्मोत्सव चतुर्थी से लेकर चतुर्दशी तक अर्थात 11 दिन तक मनाया जाता है। चतुर्दशी को अनंत चतुर्दशी भी कहा जाता है। इन 11 दिनों तक चलने वाले पर्व में भगवान गणेश की मूर्तियों को स्थापित किया जाता है। इस उत्सव में विधि विधान से गणेश जी की पूजा भी की जाती है। ऐसी मान्यता है कि भगवान गणेश अपने भक्तों के सभी दुख संताप हर लेते हैं इसीलिए भगवान गणेश को विघ्नहर्ता भी कहा जाता है।
गणेश उत्सव के दौरान हमें जगह-जगह गणपति बप्पा मोरया यह तीन शब्द ही सुनाई देते हैं। वास्तव में यह तीन शब्द मात्र शब्द नहीं है, यह तीन शब्द भगवान गणेश के प्रति भक्तों का अगाध प्रेम व विश्वास है, जो गणेश चतुर्थी से लेकर गणेश विसर्जन तक भक्तों के अंदर अनोखी ऊर्जा और भक्ति भाव को स्वतः जागृत करता रहता है। यही कारण है कि हमें गणेश उत्सव से विसर्जन तक गणपति बप्पा मोरिया के जयकारे सुनाई देते हैं।
गणपति बप्पा मोरया एक मराठी भक्ति गीत है जिसे भगवान गणेश की स्तुति में गाया जाता है। इसमें मोरिया शब्द का अर्थ है मेरा या हमारा इसलिए गणपति बप्पा मोरिया का अर्थ है हमारे गणपति बप्पा। यह भक्ति गीत गणेश चतुर्थी के शुभ अवसर पर गाया जाता है। जब गणेश जी की पूजा होती है तथा जब उन्हें विदाई दी जाती है तब भी यह भक्ति गीत गाया जाता है। इस भक्ति गीत में भगवान गणेश को बप्पा कहकर संबोधित किया जाता है। मराठी भाषा में बप्पा को पिता या पिताजी के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। गणपत बप्पा मोरिया एक भक्ति गीत है जो भक्तों के भगवान गणेश के प्रति श्रद्धा और प्रेम को व्यक्त करता है।
महाराष्ट्र के पुणे शहर के वाडा में गणेश जी का सिद्ध पीठ के रूप में डंगड़ूसेठ का मंदिर स्थापित है। जहां पुणे में गणेश उत्सव की शुरुआत इसी दगडूसेठ मंदिर से ही हुई थी। श्री दगडूसेठ और उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई पुणे में एक व्यापारी और मिठाई के निर्माता थे, तथा उनकी मूल हलवाई की दुकान अभी भी पुणे में दत्त मंदिर के समीप दगडू सेठ हलवाई स्वीट के नाम से है। 1800 के उत्तरार्द्ध में इन्होंने अपने इकलौते पुत्र को प्लेग की महामारी में खो दिया था। तभी एक दयालु ऋषि ने उनसे संपर्क किया तथा उन्हें पुणे में गणेश जी का मंदिर बनाने की सलाह दी। उन्ही ऋषि की सलाह पर उन्होंने भगवान गणेश जी की छोटी सी मूर्ति की स्थापना की तथा पूजा पाठ शुरू किया।
शहर के मध्य में स्थित मंदिर का इतिहास लगभग 200 साल पुराना है। धीरे-धीरे मंदिर की लोकप्रियता बढ़ती गई और आज यह पुणे का प्रमुख तीर्थ स्थल है। दगडूसेठ मंदिर में भगवान गणेश जी की एक विशालकाय मूर्ति स्थापित है जो कि लगभग 7.5 फीट ऊंची है तथा 4 फीट चौड़ी है। आज यह मंदिर एक सिद्ध पीठ है तथा धार्मिक मान्यता अनुसार यह एक ऐसा स्थान है जहां पर पूजा करने से भक्तों की सारी इच्छाएं पूर्ण होती हैं। यद्यपि गणेश भगवान की सिद्ध पीठ मंदिरों में गणेश जी की प्रतिमा मे सूंड दाहिनी तरफ होती है परंतु दगडूसेठ सिद्ध पीठ में गणेश जी की प्रतिमा की सूंड बाई तरफ है। जो की इस मंदिर की एक विशिष्ट विशेषता है जो इस सिद्ध पीठ मंदिर को अन्य गणेश भगवान के मंदिरों से अलग करती है।
आज गणेश उत्सव महाराष्ट्र राज्य से निकलकर सारे देश में फैल चुका है। गणेश उत्सव श्रद्धा और उल्लास के साथ सारे देश मे मनाया जाता है। गणेश उत्सव भारत का एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक त्यौहार बन गया है। आज सारे भारत में गणेश उत्सव को सार्वजनिक उत्सव का रूप देने का श्रेय भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, राष्ट्रवाद के विचार को प्रसारित करने वाले श्री लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को जाता है। तिलक जी को लोकमान्य के नाम से भी जाना जाता है। लोकमान्य का अर्थ है ” लोगों का नेता” आज भी इनको भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेता के रूप में जाना जाता है।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने दंगड़ूसेठ के मंदिर से वर्ष 1893 में पुणे में गणेश उत्सव को एक सार्वजनिक त्यौहार के रूप में मनाने की परिपाटी का शुभारंभ किया था। जिसका उद्देश्य समाज में एकता और सामाजिक सुधार लाना था। पुणे में प्रथम बार मनाए गए गणेश उत्सव में पुणे के विभिन्न वर्गों के लोग शामिल हुए थे। जिसमें प्रमुख लोगो मे वासुदेव बलवंत फड़के जो की एक सामाजिक कार्यकर्ता के साथ लोकमान्य तिलक के मित्र भी थे तथा नारायण वामन तिलक ( तिलक जी के भाई) व विष्णु शास्त्री चिपलूनकर ( सामाजिक कार्यकर्ता) गणेश वासुदेव जोशी ( सामाजिक कार्यकर्ता और समाज के अन्य वर्गों के लोग जिसमें प्रमुख रूप से ब्राह्मण, मराठा, कुनबी ( कृषक जाति जो पिछड़ा वर्ग में वर्गीकृत) गवड़ी, ( यह भी कृषक जाति जो पिछड़ा वर्ग में वर्गीकृत) तथा महार जाति वह अन्य समुदायों के लोग एक साथ एकत्र हुए और गणेश पूजन किया।
लोकमान्य तिलक ने गणेश उत्सव के माध्यम से हिंदू समाज को एकजुट किया तथा ब्रिटिश शासन के विरुद्ध हिंदू एकता की भावना समाज में उत्पन्न की। गणेश उत्सव से पूर्व पुणे में अंग्रेजों के शासन से पहले से ही हिंदू समाज विभिन्न गुटों और वर्गों में विभाजित था। पुणे में ब्राह्मण मराठा, कुनबी, गवड़ी, महार वर्ग के लोग रहते थे, तथा सब एक दूसरे से अलग-अलग रहते थे उस समय पुणे में जाति प्रथा अत्यधिक मजबूत थी एवं अंग्रेजों के शासनकाल में हिंदू समाज की एकता और सामाजिक सौहार्द दिन प्रतिदिन कमजोर होता जा रहा था तथा पुणे में उस समय विभिन्न गुटों में विभाजन था जिसमें प्रमुख रूप से तीन गुट समाज में थे। पहला गुट ब्राह्मण और मराठा का था, दूसरा गुट कुनबी और गवड़ी समाज का था तथा तीसरा गुट था जिसमें माहर,मुसलमान व अन्य जातियां शामिल थी।
लोकमान्य तिलक ने गणेश उत्सव जैसे धार्मिक उत्सव के बहाने पुणे के लोगों को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया तथा लोकमान्य तिलक का यह सामाजिक प्रयोग सफल रहा। लोकमान्य तिलक के इस सामाजिक प्रयोग के सफल होने के परिणाम स्वरूप ही विभिन्न गुटों और वर्गों के लोग एक साथ आए तथा दगडूशेठ मंदिर में आयोजित गणेश उत्सव में भाग लिया जिससे लोगों मे आपसी एकता और सामाजिक सौहार्द की भावना बढ़ी।
ऐतिहासिक प्रमाणों को यदि हम देखें तो ऐसा नहीं है कि पुणे में गणेश उत्सव का त्यौहार वर्ष 1893 से ही मनाया जाना आरंभ हुआ था। गणेश उत्सव पुणे मे पहले भी मनाया जाता था इसके ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध है। ऐसा कहा जाता है कि महाराष्ट्र में राष्ट्रकुल राजाओं ने गणेश उत्सव को भव्य पैमाने पर मनाने की परंपरा प्रारंभ की थी तथा शिवाजी महाराज के बाल्यकाल में भी उनकी माता जीजाबाई ने पुणे के ग्राम देवता कसबा गणपति की स्थापना की थी तभी से गणेश उत्सव की परंपरा चली आ रही है। शिवाजी महाराज के बाद पेशवा राजाओं ने गणेश उत्सव को बढ़ावा दिया तथा पुणे के शनिवार वाडा में गणेश उत्सव मनाया जाता रहा जिसे जिसे 1828 में शनिवार वाडा में आग लगने के कारण बंद कर दिया गया था।
शनिवार वाडा में गणेश उत्सव बंद करने के पीछे एक कहानी यह भी है कि जब ब्रिटिश शासन ने पुणे पर कब्जा किया तो उन्होंने शनिवार वाडा में ब्रिटिश यूनियन फ्लैग फहराया तथा पेशवा की संपत्ति के साथ-साथ सोना चांदी तथा मंदिर की मूर्तियों को भी लूट लिया जो गहनो जेवरातो से सजी हुई थी। इस घटना के विरोध में पेशवा ने गणेश उत्सव मनाना बंद कर दिया क्योंकि गणेश उत्सव पेशवा परिवार के लिए एक महत्वपूर्ण धार्मिक आयोजन था तथा ब्रिटिश शासन के अधीन गणेश उत्सव की परंपरा पेशवा परिवार को मंजूर नहीं थी, इसी कारण वर्ष गणेश उत्सव को बंद करने का निर्णय पेशवा परिवार ने विरोध स्वरूप लिया था जो ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक संदेश था तथा इस पुनीत परंपरा को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने दगडूसेठ मंदिर से वर्ष 1893 में पुणे मे पुनः आरंभ किया।
आज 7 सितंबर 2024 गणेश चतुर्थी को विघ्नहर्ता की कृपा से 131 वर्ष पुरानी दगडूसेठ मंदिर में गणेश उत्सव के समय आयोजित कार्यक्रम को मैं स्वयं परिवार सहित शामिल होकर देख पाया तथा महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी लोकमान्य तिलक द्वारा स्थापित गणेश उत्सव परंपरा को दगडूसेठ मंदिर में देखकर मन स्वतः ही बोल उठा गणपति बप्पा। गणपति बप्पा मंदिर में दगडूसेठ मंदिर से मूर्ति को निकाल कर लोगों के दर्शनार्थ रखा जाता है मंदिर के बाहर गणेश जी की मूर्ति को बाहर रखा जाता है यह भी एक परंपरा है।